
जीती थी जिसने दुनिया शमशीर बन के
लौटा था इस जहाँ से फ़क़ीर बन के
मैं तो यूँ भी मंज़िलों पर ठहरता नहीं
क्या करोगी मेरी तक़दीर बन के
मेरी वफ़ादारी का यह सिला हुआ
यार मेरा था दुश्मनों से मिला हुआ
क़िस्मत के फ़ैसले से हम दोनों हैं नाख़ुश
जाने किसके हक़ में यह फ़ैसला हुआ
ना ज़्यादा कुछ समझा हूँ, ना ज़्यादा कुछ कहता हूँ
याद आऊँ कभी तो जी लेना, काग़ज़ पे उकेरा लम्हा हूँ
चंदा नहीं जो रात सजाऊँ, घट जाऊँ बड़ जाऊँ
छोटी सी चिंगारी हूँ, दिल में आग लगाता हूँ
मेरा मन उड़ने को आतुर काग़ज़ या कंजर की तरह
ज़िम्मेदारियाँ काग़ज़ पर रक्खे पत्थर की तरह
कुछ ना कर पाने की पीड़ा
पीठ में चुभे ख़ंजर की तरह
हमसे बोला बंदर एक दिन मंद मंद मुसकाय
अच्छा है जो मेरे पूर्वज इनसाँ ना बन पाए
टूटे परबत सूखी नदियाँ कटते पेड़ उजड़ती बगिया
“उन्नति” की क़ीमत तुम शायद कभी समझ ना पाए
दो पैरों पर हो के खड़ा बर्बादी की ओर दौड़ता जाए
अच्छा है जो मेरे पूर्वज इनसाँ ना बन पाए
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments