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उसके वजूद पर हर रोज़ सवाल उठते हैं,
कभी किसी की बातों में, कभी किसी के तानों में,
अपने अस्तित्व को पहचानने की कोशिश करती हैं,
जिन्दा होकर भी वो रोज़ मरती हैं।
घर के एक कोने में बैठी वो अपने आसुओं की माला पिरोती हैं,
अंधेरी रात में चमकते सितारों सी, चाँद की रोशनी में वो कहा किसी को दिखती हैं,
मोतियों से भरी उन आखों से हर किसी को बड़ी उम्मीद से ताकती रहती हैं,
एक पल में कहा, वो रोज़ थोड़ा मरती हैं।
हर किसी को समेटने की कोशिश में, 
वो खुद बिखरी सी रहती हैं,
उसका कभी कोई हुआ नहीं, 
उसकी आवाज़ किसी ने सुनी नहीं, बड़ी विडम्बना है अब वो अपनी परछाईं को भी सबसे छुपाकर
रखती हैं,
वो उसे भी खोने से अब डरती हैं,
किसी को दिखता क्यों नहीं,
वो हर रोज़ अकेली मरती हैं। 

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