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जिंदगी इतनी व्यस्त हो गई है,
समय की गति तेज हो गई है ।
समय के साथ चलते चलते,
मानो जिंदगी पीछे हो गई है ।
जरूरतें पूरी करने घर से निकलता है,
पता नहीं इंसान कहां कहां भटकता है ।
तेज धूप हो या फिर बारिश की रिमझिमाहट,
सब सहकर इंसान घर लौट निकलता है ।
सुबह से शाम हो जाती है,
रात में जिंदगी थक सी जाती है,
थक हार बिस्तर पर पड़कर,
पता नहीं सुबह कब हो जाती है ।
कोई नौकरी पर जा रहा है,
तो कोई व्यापार चला रहा है ।
दिनभर की इस भागादौड़ी में,
इंसान सिर्फ़ बीतता जा रहा है ।
नौकरी पर समय से निकलता है,
घर अक्सर समय के बाद पहुंचता है ।
घर और नौकरी के दरमियान,
इंसान यहां रोज पिसता रहता है ।
जिम्मेदारियां सिर पर उठाए फिरता है,
अपनी आंखों के आंसू सुखाए फिरता है ।
दुनिया के दिए हुए हर एक ज़ख्म,
अपने दिल में छुपाए फिरता है ।
जीवन संघर्षों से घिरा जा रहा है,
चारों ओर अंधेरा ही छा रहा है ।
जरा उजियारे की तलाश में,
जीवन निकला सा जा रहा है ।
: तुषार "बिहारी"
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