
"औरत हूँ...ठीक हूँ"
किसी ने पूछा..कैसी हो?
ठीक हूँ
गिरती हूँ संभलती हूँ
चोट खाती हूँ
खुद ही मरहम लगाती हूँ
फिर चल पड़ती हूँ
खुद को उठाकर
दर्द होता है
कभी कराह लेती हूँ
कभी भूल जाती हूँ
जब जलती सब्ज़ी की
आती है बू
भूल जाती हूँ दर्द।
फिर सोते पे
याद आता है पर
अलसा जाती हूँ।
अपने लिए
भूलकर फिर
सोचती हूँ कल की
और जाने कब पलकें
पलकों से मिला लेती हूँ।
पौ फटने से पहले
अंगड़ाई ले लेता है मन
कम्बल में दुबक कर
सोचता है फिर आज की
और कल की,
घर की,बाहर की
चौके की,चूल्हे की
इसी उधेड़ बुन में
उठकर भागती हूँ
चूल्हे की ओर
उबलती चाय के साथ
मन में भी आते
विचारों के उबाल
और पलक झपकते ही
भस्म हो जाते हैं।
गिरी हुई चाय समेटकर
फिर आगे बढ़ती हूँ,
सोचती हूँ
घर की,बाहर की
बच्चे की मुस्कान की
उसी के साथ फिर
बच्ची बन जाती हूँ,
दिन भर की थकन
और दर्द भूल जाती हूँ।
सपनों पे पड़ी
धूल हटाकर
पंख लगाकर
उड़ जाना चाहती हूँ।
गिरती हूँ संभलती हूँ...
औरत हूँ..ठीक हूँ।
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