
बाद वर्षों के फिर से फागुन ने,
राग - रंग की पिटारी खोली है।
फिर से पिचकारियों का मौसम है,
फिर वही लाजवाब होली है।।
...
वक्त है 'शरद' की विदाई का,
और दहशत भी अभी कम सी है।
मास्क हटने लगे हैं चेहरों से,
आंसू सूखे हैं, आंख नम सी है।।
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दर्द दुख से परे, मुहल्लों मे,
हो रही फिर हंसी - ठिठोली है।
फिर से पिचकारियों का मौसम है,
फिर वही लाजवाब होली है।।
...
पास आने से भी जो डरते थे,
वही तैयार हैं मिलने को गले।
बन्द बैठे थे घरों में अब तक,
अब हैं आजाद सुरक्षा के तले।।
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गुम थी, बिखरी थी महामारी में,
फिर से एकत्र वही टोली है।
फिर से पिचकारियों का मौसम है,
फिर वही लाजवाब होली है।।
...
रंग हैं ढेर, है गुलाल यहां,
नयी से भी नयी पिचकारी है।
भरे बाजार हर जरूरत से,
जोश बच्चों में बहुत भारी है।।
...
अब सभी छूट गईं हैं पीछे,
जो भी होनी थी, जो भी हो ली है।
फिर से पिचकारियों का मौसम है,
फिर वही लाजवाब होली है।।
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