
बहुत जरूरी है
परिवर्तन
प्रकृति के प्रभाव में,
मनुष्य के स्वभाव में,
शान्ति में, अशान्ति मे,
हकीकत में, भ्रान्ति में,
असमंजस के कोहरे मे
सब कुछ धुंधला सा जाता है।
चाह कर भी इंसान खुद को रोक नहीं पाता है।।
हर्ष और वेदना से उपजी
संवेदना में भी बदलाव जरूरी है।
जी हां, यह अहसास की मजबूरी है।।
आजकल आभासी अनुभूतियों
का मौसम सा छा गया है।
अत: अब संवेदनाओं को भी
संशोधित करने का समय आ गया है।।
....
कहीं भी, किसी को भी, एक मौका दीजिए।
और फिर इस रहस्य पर भी गौर कीजिए।।
मन की गहराई में छिपा भाव,
उसके कथन से सर्वथा भिन्न होता है।
भले ही इस अन अपेक्षित भ्रान्ति से,
सुनने वाले का मन खिन्न होता है।।
प्रकट एवं प्राकट्य का यह भेद।
अन्त:करण को पहुंचाता है खेद।।
कहना कुछ चाहता है, पर कहा कुछ जाता है।
पर सुनने वाला फिर भी सहमति में सिर हिलाता है।।
क्योंकि अभिव्यक्ति का
यह अनूठापन सभी को भा गया है।
अत: अब संवेदनाओं को भी,
संशोधित करने का समय आ गया है।।
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