
मैंने सोचा था, सभी हैं, जुबां के पक्के यहां पर।
वो ही करते हैं सदा, रहता है जो उनकी जुबां पर।।
पर सफर में जिन्दगी के, आ मिले बहुतेरे ऐसे।
पूर्व कह पश्चिम को जाना,उनकी सहज आदत हो जैसे।।
मैनै सोचा था कि, सच्चाई की है कीमत यहां पर।
सच से ही बनते हैं रिश्ते, दोस्ती,बन्धन जहां पर।।
पर जहां देखो वहां पर, झूठ का ही सिलसिला है।
खोजने पर भी न कोई, सत्य का प्रेमी मिला है।।
मैने सोचा था कि, मन के भावों को पढ़ना सहज है।
जो भी आंखों में है दिखता,बिम्ब मन का ही महज है।।
पर, यहां पर तो, नकाबों से भरा अपना जहां है।
असली चेहरों को छिपाए, नकली चेहरों का समां है।।
मैने सोचा था कि, अपनापन यहां चाहत सभी की।
स्नेह, आदर,प्यार की होगी, जरूरत हर किसी की।।
पर यहां साजिश, अहम, छल, द्वेष में भटकी है दुनियां।
अपनेपन को छोड़, अपने स्वार्थ में अटकी है दुनियां।।
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