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ज़िन्दगी को पुकार कर देखा,
उम्मीदों को दुलार कर देखा।
जाने खुशियां कहां विलीन हुईं,
मन का हर कोना बुहार कर देखा।।
नींव मजबूत थी डाली हमने,
वास्तु-खामी भी निकाली हमने।
पर न अनुभूति हुई घर जैसी,
घर को फिर फिर संवार कर देखा।।
खुली थीं खिड़कियां गली की तरफ,
बंद आंगन में सभी दरवाजे।
टोह अपनत्व की मिले कैसे,
दोष ये भी सुधार कर देखा।।
घर के दरवाजे, खिड़कियां ही नहीं,
मन की चौखट उतार कर देखी,
ताजगी सी महक मिली, संग जब,
सादगी को निखार कर देखा।।
दंभ, जिद, स्वार्थ से परे हटकर,
स्नेह, सम्मान, शिष्टता, मृदुता।
संस्कारों को आत्मसात किया,
ढेर खुशियों का द्वार पर देखा।।
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