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परिपाटियों के साथ चले जा रहे हैं हम।

हर रोज यूं ही खुद से छले जा रहे हैं हम।।

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जो बीत गया,बात गई, पर अटल रहे।

उनके नसीब से ही, जले जा रहे हैं हम।।

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नाकामयाबियों के भी, किस्से सुने बहुत।

उन सब का हश्र देख, गले जा रहे हैं हम।।

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अपनों के साथ सपने देखना, खता थी क्या?

क्यों उन्ही सब को आज खले जा रहे हैं हम?

...

ना किसी की पसंद बन सके, न जरूरत।

बस रात-दिन के साथ, पले जा रहे हैं हम।।

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नीयत है ये नियति की, या अपना गुरूर है।

या इत्तिफाक से ही, टले जा रहे हैं हम ।।

...

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