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परिपाटियों के साथ चले जा रहे हैं हम।
हर रोज यूं ही खुद से छले जा रहे हैं हम।।
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जो बीत गया,बात गई, पर अटल रहे।
उनके नसीब से ही, जले जा रहे हैं हम।।
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नाकामयाबियों के भी, किस्से सुने बहुत।
उन सब का हश्र देख, गले जा रहे हैं हम।।
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अपनों के साथ सपने देखना, खता थी क्या?
क्यों उन्ही सब को आज खले जा रहे हैं हम?
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ना किसी की पसंद बन सके, न जरूरत।
बस रात-दिन के साथ, पले जा रहे हैं हम।।
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नीयत है ये नियति की, या अपना गुरूर है।
या इत्तिफाक से ही, टले जा रहे हैं हम ।।
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