
अंधेरा यहां तो सवेरा कहीं,
जो सवेरा यहां तो अंधेरा कहीं है।
नहीं एक सा हर जगह आसमां,
हर कहीं एक जैसी जमीं भी नहीं है।।
यहां हर खुशी को भी गम की है ख्वाहिश,
ये ग़ज़लें, नज़्म भी सितम ढ़ूंढ़तै हैंं।
जो मंजिल को पाने की है राह दुर्गम,
तो क्यों रास्ते हम सुगम ढ़ूंढ़ते हैं।।
जो गावों में खेतों की हरियालियां हैं,
हरी सब्जियां, फूल, फल, बालियां हैं।
तो शहरों में ईंटो के जंगल सरीखे,
मुहल्लों में बदबूभरी नालियां है।।
थे झूठे वो सपने, जो हमने सजाए,
महज अब तो अहले करम ढ़ूंढ़ते हैं।
जो मंजिल को पाने की है राह दुर्गम,
तो क्यों रास्ते हम सुगम ढ़ूंढ़ते हैं।।
कहीं नित्य व्यंजन, कहीं रोटी बासी,
कहीं हर्ष, उल्लास, कहीं पर उदासी।
कहीं जिम भरे हैं सुडौले बदन से,
कहीं फिक्र, मजबूरियां, भूख, खांसी।।
नजर में थे जो, वो नजारे नदारद,
बची राह में हमकदम ढ़ूंढ़ते हैं।
जो मंजिल को पाने की है राह दुर्गम,
तो क्यों रास्ते हम सुगम ढ़ूंढ़ते हैं।।
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