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--------- बदले का आगाज़----------
निस्तब्धता से उठती इक आवाज़ है
कि यह उसके बदले का आगाज़ है।
कहाँ छुप गया इंसान बिलों में जा कर
जब से बिगड़ा इस धरा का मिज़ाज़ है?
ना गाड़ियों का शोर, ना कहीं भीड़ है
ना कहीं उठता हुआ धुएँ का गुबार है।
खुशी की लहर है दौड़ती हर जन्तु में
जब से कुदरत की गिरी हम पर गाज है।
खुदी की कैद का फ़रमान सुना दिया
हमारा गुनाह हम पर ही इक राज़ है।
करता है हर काम जो बड़े ही अदब से
बड़ा ही सभ्य ये इंसानों का समाज है।
निस्तब्धता से उठती इक आवाज़ है
कि यह उसके बदले का आगाज़ है।
-तरुण
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