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मेरी ज़िंदगी की कैफियत तो पूछिए ही मत,
एक घोर घनी रात ठहर गई है मुझमें I
इसका उजाला न जाने कब आएगा,
उस कैफियत को भी रहने की आदत हो गई है इसमें I I
एक निराशा,लाख सहारों की उम्मीद मुझे भी थी,
पता नहीं यह आंकड़ा कैसे उल्टा पड़ गया I
बहुत ही धुंधली यादें बाकी है अब तो,
अरे ! यह तो मेरा एक छोटा-सा अफसाना बन गया I I
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