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दुष्करता में खड़ा अकिंचन,
मानव था कुछ सोच रहा
अनुभव के संदूक मे अपने,
युक्ति कोई खोज रहा
सोच रहा मैं कैसे अपने,
विधि तेज को बढ़वाऊँ
कौन से मंत्र का जाप करूं मैं,
रत्न कौन सा धर जाऊं
धुंध विचारों की गहराई,
ज्योति तब चकमक सी आई
अंतर्मन तब प्रकट हुआ,
सम्मुख आकर निकट हुआ
बोला स्वामी , संशय छोड़ो,
स्वर अपने संग्राम का छेड़ो
तुम सर्वोत्तम कृति ईश की,
तुम पर हैं वरदान कई
भुजा दी जब तुम्हे ईश ने,
करो उसका उपयोग ज़रा
भाग्य नहीं भुजबल से अपने
यश का परचम दो फहरा
नीला फिर आकाश ये होगा,
उपवन होगा हरा भरा
सतरंगी
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