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कि मंजर कुछ बिखरा सा हैं,
फिर ये तन्हाई का शोर कैसा,
दिन के उजाले में भी लगती रात सी हैं
यु चला मैं अंधेरो की ओर कैसा!!
कुछ घनी सी हैं रात
गुम हैं चांदनी जिसकी,
दाग हैं जिसके मुख पर
उस चाँद को ये गुरूर कैसा!!
किसी के अक्स में......
ढूढने चला था खुद को मैं,
न जाने किसकी तज्जसुस् में गुम था मैं,
मिले तो मिले और न मिले तो फ़ितूर कैसा!
कि आग ही आग हैं हर तरफ
हैं रास्ते गुम सारे....
न मिले मंजिल तो अफसोस,
गर मिल जाये तो सरूर कैसा!!!
- Suman
फिर ये तन्हाई का शोर कैसा,
दिन के उजाले में भी लगती रात सी हैं
यु चला मैं अंधेरो की ओर कैसा!!
कुछ घनी सी हैं रात
गुम हैं चांदनी जिसकी,
दाग हैं जिसके मुख पर
उस चाँद को ये गुरूर कैसा!!
किसी के अक्स में......
ढूढने चला था खुद को मैं,
न जाने किसकी तज्जसुस् में गुम था मैं,
मिले तो मिले और न मिले तो फ़ितूर कैसा!
कि आग ही आग हैं हर तरफ
हैं रास्ते गुम सारे....
न मिले मंजिल तो अफसोस,
गर मिल जाये तो सरूर कैसा!!!
- Suman
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