
उम्मीद
छूट जाए जब कोई दिल सा साथी
ना रहे जीवन में जब कोई उम्मीद बाकी
तो दिल की गहराइयों से उभरते
और आँखों से बरसते
बेरंग अश्कों की स्याही
और जज़्बातों की कलम से
दिल के कोरे काग़ज़ पर
शब्द दर्द बनकर फूटते है
ना जाने फिर हम किस उम्मीद में जीते हैं ।
वैसे तो जीवन के कई रूप है
छाँव ख़ुशी की तो कहीं ग़म की धूप है
पर जब ना हो जीवन में जीने की उमंग
लगने लगे फीके ज़िंदगी के हर रंग
तब टूटकर मुरझाए फूलों की तरह
खुशबू के लिए तरसते जीवन में
ख़ुशियों के गुलाब नहीं महकते है
ना जाने फिर हम किस उम्मीद में जीते है ।
जब आँखों से दूर हो मंजर
हर टीस जिगर की बन जाए ख़ंजर
बेचैनी जब घर कर गई हो दिल में
पल पल गुज़रे जब मुस्किल में
तब दिल में समाये दर्द के साये
विरह की ज्वाला में तपकर
ले अंगारों का रूप सीने में दहकते है
ना जाने फिर हम किस उम्मीद में जीते है ।
सुधीर बड़ोला
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