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तुम कैसे पत्रकार ?
ना तर्कों में तुम्हारी धार
ना तथ्यों का कोई आधार
है स्वरों में उत्तेजना सीमा पार
तुम कैसे पत्रकार ?
सत्य से ना तुम्हारा कोई सरोकार
परोसे साँझ सवेरे झूठे समाचार
करते हो रोज नैतिकता का संहार
तुम कैसे पत्रकार ?
करते हो जाति -धर्म का जिक्र बार बार
चुनवाते रोज़ नफ़रत की दीवार
स्तंभ लोकतंत्र का होता तुमसे शर्मसार
तुम कैसे पत्रकार ?
क़लम तुम्हारी मानो झुकी और बीमार
हो क्यों इतने बेबस और लाचार
अब दर्पण भी देगा तुम्हें ‘धिक्कार’
तुम कैसे पत्रकार ?
-सुधीर बडोला
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