
सिर्फ़ तुम…
सोचा उसपर एक कविता लिखूँ
पर शब्दों ने उसकी तस्वीर बना डाली
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तेरे स्पर्श के बिना अधूरा सा हूँ
मेरा कलम सा नाता है तुमसे
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लोग कहते है कि उन्हें बोलने से परहेज़ है
पर हमें तो उनकी ख़ामोशी भी सुनाई देती है
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मैंने दर्पण नहीं टाँगे चार दीवारी में कहीं
बस आँखों में तेरी खुद को देखने की चाह है
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ख़रीद ली एक सौ आठ मणियों की माला मैंने
क्यूँकि हर मणि में तेरा नाम खुदा था
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वो क़रीब आकर सिलाई के धागे को अधरों से काटे
बस यूँही ,मैंने क़मीज़ का ऊपरी बटन तोड़ दिया
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उछलकर बादलों के परे लिख तो दूँ नाम तेरा
पर नीले इस आसमाँ पर स्याही भी बेअसर है
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मेरे चेहरे की रंगत हर भाव तुमसे है
तुम ज़िंदगी, मुझे लगाव तुमसे है
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मृत देह में प्राण फूँक दे ऐसा तेरा आभास है
मानो बंजर धरा पर उग आई नर्म हरी घास है
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-सुधीर बडोला
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