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नव चेतना
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चल उठ
नया सबेरा है
प्रखर सूर्य किरणों का डेरा है
विलम्ब ना कर और अब
जगा अंतःकरण की चेतना को
नहीं तो खो जायेगी कहीं
नैतिकता और मूल्यधर्मिता
क्यूँ उलझा है कटुता में
पक्षपात और आडंबर में
कर स्वयं का अवलोकन
और रोक ले अपने
वैचारिक दृष्टिकोण का पतन
शायद सब कुछ खोकर भी
स्वयं को जीवित रखना संभव हो
———सुधीर बडोला———
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