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आबरू
बेरहम नर-पिचासों की हवस की बलि चढ़ी थी
ज़िंदा तो थी वो बे-आबरु मगर लाश सी पड़ी थी
भीड़ जुटी जमघट बढ़ा फिर भी ना कोई आया
हाथ बढ़ा ना कोई आगे, तरस सभी ने खाया
टुकड़े टुकड़े वस्त्र तन पे तार- तार सी काया
धज्जी -धज्जी लज्जा मौत का दबा दबा सा साया
डर से कांपती सड़कों पर असुरी मनोवृत्ति वाले शैतानो से
कब ये पावन धरा मुक्त होगी ऐसे नर-भक्षी हैवानों से ।।
यातनायें वेदनायें क
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