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यह कैसा रोग रे।
बन गया वियोग रे।
सुनी पड़ गई तेरे जाने से दहलीज मेरी।
खनकती चूड़ियां टूट कर बिखर गई।
खूंटी पर टंगे रह गए हार बनकर तेरे और मेरे सपने।
खिड़कियां भी अब हवा के झोंके से भी ना खटखट आती हैं।
मायूसी जैसे चादर की तरह पसारे आती है।
दीवारों पर जैसे रस्म रिवाजों की पोटली टं गी नजर आती है।
खुशियां जैसे लाखों कोसो दूर हो गई है
इन आंखों से देखने पर भी नजर ना आती है।
यह जिंदगी तेरे बगैर कैसा मेरा मजाक उड़ा ती है।
यह कैसा रोग रे।
बन गया वियोग रे।
सुना पड़ गया मेरा आंगन।
मांगे ना सजी कितने
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