
यह कैसा रोग रे।
बन गया वियोग रे।
सुनी पड़ गई तेरे जाने से दहलीज मेरी।
खनकती चूड़ियां टूट कर बिखर गई।
खूंटी पर टंगे रह गए हार बनकर तेरे और मेरे सपने।
खिड़कियां भी अब हवा के झोंके से भी ना खटखट आती हैं।
मायूसी जैसे चादर की तरह पसारे आती है।
दीवारों पर जैसे रस्म रिवाजों की पोटली टं गी नजर आती है।
खुशियां जैसे लाखों कोसो दूर हो गई है
इन आंखों से देखने पर भी नजर ना आती है।
यह जिंदगी तेरे बगैर कैसा मेरा मजाक उड़ा ती है।
यह कैसा रोग रे।
बन गया वियोग रे।
सुना पड़ गया मेरा आंगन।
मांगे ना सजी कितने दिनों से वो मेरे साजन।
खनकी न चूड़ियां मेरे हाथों में।
गजरे ना सजे मेरे बालों में।
सुनी दहलीज पर मैं करूं तेरा इंतजार।
फिर याद आता है वह बीता संसार।
मेरी बावरी वो मेरी जान तू ना किया कर बैठ कर मेरा इंतजार।
तू कहता था जब आना होगा आ जाऊंगा ।
तू ना किया कर बैठ कर मेरा इंतजार।
तू ना आया इस बार।
कई बरस बीत गए करते-करते तेरा इंतजार।
यह कैसा रोग रे।
बन गया वियोग रे।
कभी-कभी मैं यह भूल जाती हूं।
कि तू नहीं आएगा।
मैं बैठकर तेरा इंतजार करती रह जाती हूं।
और मैं करूं क्या मैं तुझे भूलना पाती हूं।
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