
लाचार विवश ऐ आंखें।
पर उस रब से कुछ ना मांगे।
विधाता वह अन्नदाता है।
एक सवाल उसके मन में।
पर वह अन्नदाता कहां है ।
उसे कोई विवास आंखें न जाने।
ना पहचाने हैं।
उसे तो पता है।
बस अपने दो वक्त की रोटी का ख्याल।
खबर दो खबर आता जाब अपने नन्हे की याद।
उसके पास नहीं कोई सपनों का चिराग।
पलकों को चूम कर होटों तक उतर जाना ।
इत्तेफाक तो नहीं है तेरा।
उस मां की ममता को चुनौती दे जाना।
फिर पीठ पर बांधकर।
यह बताना कि।
सुन मेरे लाल।
मेरी और तेरी किस्मत इन ईटों की दीवारों की बनी नहीं है।
यह तो कच्चे मकान की होती है जिसे हर वक्त हर तूफान से लड़ना पड़ता है।
आसमानों की तपस में तप कर भी भूख मिटाना पड़ता है।
ना चाह कर भी।
इन चिलचिलाती धूपो में मुस्कुराना पड़ता है।
चाहे कितना भी गम हो ।
उन पसीनो को संभाल कर छिपाना पड़ता है।
तब भी चेहरे पर। एक सीकन छूट जाती है।
यह मां 30 के उम्र में 50 पार कर जाती है।
चेहरे से इतनी बूढ़ी नजर आती है।
यह इतना मेहनत करती है।
ए खाक बनकर भी चिराग जलाए रखती है।
पर किसी से कुछ मागती नहीं।
लाचार विवश ए आंखें।
उस रब से मांगने पर डरती है।
अकेले कहीं कोने में बैठ कर।
वह फौलादी मां ।
सिसकती है।
कमजोर समझने की भूल न करना।
ओह हर वक्त मजबूती से खड़ी रहती है।
मेरी तरफ से सलाम ऐसी मां को।
जो योद्धा बनी रहती है।
जो डर से भी ना डरती हैं ।
पर उस खुदा की इज्जत करती है।
सम्मान में दो फूल अर्पण किया करती है।
जिसने कई सालों से दर्पण नहीं देखा।
फिर भी वह।
एक आईना सा निखरती है।
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