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इन हवाओं में कुछ अपनापन है।
सुना पड़ा जो मन है।
मेरे घर के आंगन में एक चहल पहल है।
गुजरती जो गलियां है।
उस पर मेरे बचपन की सुनहरी चादर है।
पड़ोस वाली आंटी के घर में जिंदा आज भी मेरे बचपन की चाहत है।
इन हवाओं में कुछ अपनापन है।
उसके नीचे बैठा जो मेरा तन है।
दुपट्टे से ढाका जो मेरा अंग है।
मन में मेरे एक अलग उमंग है।
जीवन में कुछ ना होकर भी एक तरंग है।
बचपन के वो दिन कितने अच्छे थे।
आज उन सुनी गलियों को बचपन का इंतजार है।
इन हवाओं में कुछ अपनापन है।
गलियों की छाप के
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