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पित्राज्ञा से नचिकेता करे यमलोक प्रयाण
त्रिरात्रि व्यतीत हुई भूखे खड़े रहे यमद्वार
यम ने ऋषि को किया पाद्यार्घ्य अर्पण
यम बोले आतिथ्य स्वीकारें मांगे तीन वर
पितृभक्त नचिकेता ने माँगा पहला वर
मृत्युस्वामी रहे मेरे पिता शान्त-संकल्प
हो जाय मेरे प्रति क्रोधरहित प्रसन्नचित्त
बोले यमराज ऐसा हो कहा तथास्तु तब
ऋषि नचिकेता ने फिर मांगा दूसरा वर
यमको अग्नि विदित स्वर्ग की साधनभूत
जिसे जानकर मिलता स्वर्ग में अमृतत्त्व
जानना चाहूंगा आपसे अग्नि का रहस्य
अग्नि से प्राप्त हो अनन्त स्वर्ग का लोक
ये मूल कारण विराट विश्व प्रतिष्ठा स्तोत्र
रहै विद्वानों की बुद्धि गुहा में सदा स्थित
बताई विधि सारी कैसे होता अग्निचयन
यम बोले यह अग्नि प्रसिद्ध हो तेरे नाम
ग्रहण करो यह विचित्र रत्नों वाली माल
मांगा नचिकेता ने मृत्यु से तीसरा वचन
जानना चाहूँ यमराज आपसे आत्मतत्त्व
आत्मनिर्णय न होता अनुमान या प्रत्यक्ष
यम झिझके आत्मविद्या नहि साधारण
बताऊ कैसे तुम्हे यह ज्ञान बहुत दुरूह
जिद छोड़ो यम चलाते भुवनमोहन अस्त्र
सुर-दुर्लभ सुन्दरियाँ दीर्घकाल स्थायिनी
भोग-सामग्रियों का दे ऋषि को प्रलोभन
पर डिगा नही सके नचिकेता का निश्चय
विचलित न कर पाए अडिग थे ऋषिवर
यमराज बोले निंदित वित्तमयी संसार गति
ब्रह्मज्ञान अधिकारी पुरुष वैराग्यसम्पन्न
श्रेय-प्रेय विद्या-अविद्या का विपरीत रूप
वर्णित किया यमराज ने आत्मा का ज्ञान
न जन्मता न मरता है आत्मा का ये तत्व
न किसी से उत्पन्न न कोई इससे उत्पन्न
विस्तारपूर्वक समझाते आत्मा का स्वरूप
वह अजन्मा नित्य शाश्वत और सनातन
बना रहे जो होने पर भी शरीर का पतन
है सूक्ष्म से सूक्ष्मतर महान से महानतम
रहता अनित्य शरीर में है पर शरीर रहित
व्याप्त अस्थिर पदार्थों में पर सदा स्थिर
चले अग्नि उस डर से सूर्य तपे उसी डर
चले इन्द्र वायु मृत्यु सबको उसका डर
ना मिले बुद्धि से ना मिलता वेद प्रवचन
नही मिले जो करे शास्त्र श्रवण जन्मभर
मिले उसको जिनका पवित्र अन्त:करण
मलिनता की छाया जिसे ना करे स्पर्श
व्याप्त कणकण में चले जिससे सृष्टिक्रम
काल आने पहले जाने जो हो जाता मुक्त
मिटी कामना जिसकी हुई वासना शान्त
शोकादि क्लेशों के पार पाता परमानन्द
उद्दालकपुत्र नचिकेता लौटे ले आत्मज्ञान
स्वागतार्थ उमडे थे वृद्ध तपस्वि ऋषिवर
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