
चलते चलते यह कहां पहुंच गए हम
जीवन के साल दर साल गुजरते रहे।
वक्त गुज़रने का अहसास नही हुआ
मुट्ठी से रेत सा पलपल सरकता गया।
जब भी पीछे मुड़ मुड कर देख जाते
क्या खोया क्या पाया बस देख जाते।
जैसे बुंद बुंदकर कोई घड़ा रिस जाए
जीवन पल पल हाथ से खिसक गया।
खोया है इधर कितने ही अपनो को
कितने परायो को अपना बनाते गए।
कई पल हंसी खुशी में यहां बिताते
कुछ शिकवे शिकायत में गुजर गया।
सहते रहते थामते हुए रिश्तों की डोर
खट्टे तो कभी मीठे अनुभव होते गए।
महफिले सजाते समय भागता चला
अकेले थे वक्त धीरे धीरे चलता गया।
कुछ अपने कुछ पराए रिश्ते निभाते
जीवन मे किस किसका कर्ज चूकाते।
अजनबी अपनेपन का अहसास देते
कोई पूर्वजन्म का हिसाब चुका गया।
जीवन हर पल नया अहसास देता
जीवन मे कर्ज पर कर्ज बढाते चले।
यहीं पर वक्त ने ऐसे ऐसे जख्म दिए
वो सहलाने जीवन में कम पड़ गया।
काश अपने दिल की गांठे खोल देते
जीवन के पतझड़ में बहार ले आते।
मगर जीवन की अपनी रफ्तार रही
जीवन एक पहेली सा उलझता गया।
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