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बैठे बैठे बुनती रही जाल एक मकड़ी सा
किसने क्या कहा लूँ बदला उस घड़ी का
सागर दिल मे समेटे हिलोरे लेती ये लहरे
मन आंदोलित रहे इस उधेड़बुन में रहता
हिसाब करती रहती वर्षो की हर ठेस का
जलीकटी सुनाने का अजीब आनंद होता
मैंने लगाए वर्षो घड़ी क्षणो में सिमट गई
नया खाता खोल बैठी चोट दी शकुन था
जो सुनाया उसे वर्षो के लिए उलझा बैठी
वो करेगी वर्षो जुगाली दो पल सुनाने को
जीवन की शाम ढली तब ये ख्याल आया
खोया क्या पाया जीवन का चिट्ठा बनाया
पल की खुशी लेने को बदले की आस थी
उगला निगला विष नीलकंठ बन धार रही
यह विचारो की गठरी मेरा चैन छीन गयी
सोचती क्यो न गाड़ दिया क्यों वर्षो ढोया
विष पचा पाती तो खुशहाल समाज होता
मकड़जाल में उलझी माया से उबर पाती
जिंदगी हर घड़ी मुस्कराती खिलखिलाती
जीवन का हर पल मुस्कान से सजा पाती
सच कहे जमाने मे जिस दिन ये घड़ी आई
भूल जाती पर क्यों नही ये सद्बुद्धि आयी
अब पछताए क्या होत है जागो तब सवेरा
हे दीनदयाल सब रहे खुशहाल ये दृष्टि देना
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