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टूटते समाज की घुटन

suresh kumar guptasuresh kumar gupta March 5, 2023
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आवाज़ उठाई उसके जुल्मो के खिलाफ़
वो आया मेरी गली शायद मुझे डराने को

वो चार का ग्रुप आवाज़ में आक्रोश लिए
देखना चाहता खौफ में मुझमे परिवार में

पास पडोस झांकते अर्द्धखुली खिड़की से
काश वे साथ आ जाते हज़ारो की भीड़ में

काश वे भी बन जाते मेरी सशक्त आवाज़ 
तब कैसे कोई फैलाता आतंक समाज मे

'काश' सदा ही पर यहां बेबस होता गया
कोई आगे न आया किसे दोषी करार देता

क्या मैं स्वयं अपने गुनाह का शिकार था
या गुनाह है बैठे डर का उन छुपे पड़ोस में

हम हज़ारो अकेले रहे वे चार थे जुड़े जुड़े
गुनाह ग्रुप के आवाज़ दबाने की चाह का

मजबूरी की बेडिया हज़ारो पड़ोसियों की
साथ खड़े रहने का ख्वाब पाले आपस में

हम मध्यवर्गीय महाअटवी में कैसे जी रहे
जहां परिवार सम्पति हमारी बेड़ियां बनी

घबराते रहे परिवार पर चोट के ख़्याल से
 पाई पाई जोड़ बनाये घरोंदे को बचाने में

क्यों हज़ारो के झुंड पर भेड़िया टूट पड़ता 
क्यों मेमना रहम की आस में गिड़गिड़ाता

जैसे वे इस जंगल के सरमायेदार नही रहे
दूसरे बेखबर तमाशा देखते उस खबर में

बुजुर्ग समाज बना गए साथ खड़े होने को
मगर डर का कद समाज से भी बड़ा हुआ

शायद यही कारण है समाज शोषण का
समाज का दोहन इसके ठेकेदार से हुआ

मगर जब कभी वक्त करवट लेकर आया
इसी धरती के आगोश से लावा फुट पडा 

बेजुबान भी जब जब सडको पर टूट पडे 
आतंकी शिकार होते बिलों में समाते गए

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