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वर्षो की चाह थी जो स्वप्न पल्लवित करती
स्वप्न साकार हुआ तो महारानी बिलख रही
सफलता मिली तो संग दर्द का सागर लिए
क्या परिणति हुई धिक्कार जीवन लग रहा
श्रीकृष्ण का सानिध्य पाकर बिलखती रही
ये नही चाहा था कान्हा कैसी परिणति रही
वैधव्य का क्रंदन अनाथ कई बाल हुए यहां
धिक्कार यह जीवन क्या ये हमारी चाह थी
रक्तरंजित सत्ता की तो कभी चाह नही की
सांत्वना देते श्रीकृष्ण नियति सदा क्रूर रही
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