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जीवन केल पौध सा परत दर परत चढ़ा
जिया जो पल वह नई परत चढाता गया
खट्टे मीठे पलो की मैं माला पिरोता गया
समीक्षा में परत दर परत उतार भी रहा
कहते है बुजुर्ग धर्म ग्रंथ शाश्वत सत्य है
जिसकी शिक्षा काल खंड में अक्षुण्ण है
समय बदलता रहा पर धर्म नही बदला
संकीर्ण मनोवृति ने धर्म का ह्रास किया
मैं अपने संस्कारो की दुहाई देता रहता
जो संस्कार मेल नही खाए बदल गया
क्या देता विरासत में खुद स्थिर न रहा
सत्य की दुहाई दे असत्य में उलझ रहा
वक्त पर जो परत दर परत खोल बैठा
मासूम को सत्य पढ़ाता झूठ सिखाता
कितना बेबस रहा समय के बहाव में
कैसे कहूं समयोचित संस्कार न दिया
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