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अखंड ब्रह्मांड में न ओर न छोर
जिसमे बसती एक छोटी धरती
धरती के एक कोने में मैं बसता
हूं आजाद मगर बंदिशे कितनी
तरस जाता अब एक सांस को
न भरोसा आए कब रुक जाए
असंख्य जीवो में ये नन्ही जान
जिसके लगे है कितने पहरेदार
ममता लालच है दुश्मन बहुतेरे
परिवार समाज कितनी बंदिशे
जगह जगह जल राह घेर जाए
मजाल कोई धरती छोड़ जाए
तन पड़ा मन दूर दूर उड़ता जाए
थकता नींद के आगोश में आये
फिर उड़ता सपनो की दुनिया में
मगर किधर भी टिक नही पाये
सोच सोच कर सोचता जाता हूँ
क्यों नही ये जाल काट पाता हूँ
कहां तक फैली हुई है ये बंदिशे
सुषुप्ति के आगोश में समाता हूं
स्वरचित
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