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लहरे उठती रही, किनारे तक चलती रही।
धीरे धीरे मद्धिम हो, ये लहरे थमती गयी।
किनारे तक चलते, लहरों के वर्तुल देखो।
तालाब किनारे बैठ लहरों से खेलो कभी।
जीवन का फलसफा लहरों में छिपा कहीं।
समस्या कंकर मन की सतह से टकराता।
मन उद्दलित कर लहरों के वर्तुल बनाता।
लहर मन के किनारे टकराती लौट जाती।
तीन सात दिन में मन संतुलन लौट आता।
पंद्रह से बीस दिनों में मन शांत हो जाता।
फिर एक कंकर मनसतह से टकरा जाता।
अनवरत ही सिलसिला यह चलता जाता।
खोजना यह राज ध्यान के पलों में कभी।
करना आत्मसाक्षात्कार अपने भीतर ही।
पाओगे तब इस मन की गहराई में कहीं।
उद्दलित तुम होते मन भी तुम कंकर भी।
#सुरेश_गुप्ता
स्वरचित
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