जला बैठे आशाओं के दीए's image
Poetry1 min read

जला बैठे आशाओं के दीए

suresh kumar guptasuresh kumar gupta February 28, 2023
Share0 Bookmarks 11 Reads0 Likes


ऐलान हुआ अमृतकाल द्वार पर खड़ा है
अमृत जहां टपका वह पहुंच से दूर रहा

बंद कमरे में अमृत बंटा झांक नही सके 
वह आये हमारे बीच हम बस देखते रहे

खाई थी कसमे वादों का पिटारा लाये थे 
कारवां उनका आस की किरण लाया था

कारवां करीब से गुजरा आशाए लूट गई
लुटे लुटे से जरा पिटे से गुबार देखते रहे

उमड़ आए तो नादान मन में आस जगी
खबर थी इन बादलों से बरसात न होगी

लगा कुछ न होगा ये दौर पहले भी आया
फिर भी क्यो जला बैठे आशाओं के दीए

उस डगर पर थे जहां मेरा आशियाना था
उठाये हुए थे झोला जिससे आस बंधी थी

बाते उनकी हमेशा रही प्यारी प्यारी मगर 
जेब उनकी खाली हाथ खाली खाली रहे

विधाता तकदीर लिखने में कुछ चूक गए
किस्मत पर तरस आया वे रेवड़ी बांट गए

No posts

Comments

No posts

No posts

No posts

No posts