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ऐलान हुआ अमृतकाल द्वार पर खड़ा है
अमृत जहां टपका वह पहुंच से दूर रहा
बंद कमरे में अमृत बंटा झांक नही सके
वह आये हमारे बीच हम बस देखते रहे
खाई थी कसमे वादों का पिटारा लाये थे
कारवां उनका आस की किरण लाया था
कारवां करीब से गुजरा आशाए लूट गई
लुटे लुटे से जरा पिटे से गुबार देखते रहे
उमड़ आए तो नादान मन में आस जगी
खबर थी इन बादलों से बरसात न होगी
लगा कुछ न होगा ये दौर पहले भी आया
फिर भी क्यो जला बैठे आशाओं के दीए
उस डगर पर थे जहां मेरा आशियाना था
उठाये हुए थे झोला जिससे आस बंधी थी
बाते उनकी हमेशा रही प्यारी प्यारी मगर
जेब उनकी खाली हाथ खाली खाली रहे
विधाता तकदीर लिखने में कुछ चूक गए
किस्मत पर तरस आया वे रेवड़ी बांट गए
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