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लाक्षागृह से निकलने की राह ढूंढते।
रास्ते वही जिसे कभी तोड़ आए थे।
बेरहम वक्त ने दस्तक दी तकदीर पे।
पल पल यह तस्वीर बदलने आए थे।
हुआ करते थे तैराक जिस सागर के।
आज उसका ही पानी डराने लगा है।
चूंटी चूंटी रेत झाड़ घर से फेंक आए।
मजबूर हुए आज रेत ढूंढने आए है।
कभी इतिहास बदलने का दम भरे।
गुमनामी के अंधेरो में खोते जा रहे।
मांझी चल रहा तूफानों से बेखबर।
साहिल छोड़ मंझधार में आ गए है।
हवा के थपेड़ों ने रास्ते बदल डाले।
मंजिल किधर अब ढूंढते जा रहे है।
हश्र क्या है जहां में अक्लमंदी का।
बेदारकारी का सिला चुकाने लगे है।
कहते जमाने मे झुकना नही जाना।
वक्त की मार ने दरख्त उखाड़ डाले।
चाणक्य है राजनीति के मुहाने पर।
दिशा भ्रमितसा नजर आने लगा है।
#सुरेश_गुप्ता
स्वरचित
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