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लाक्षागृह से निकलने की राह ढूंढते।
रास्ते वही जिसे कभी तोड़ आए थे।
बेरहम वक्त ने दस्तक दी तकदीर पे।
पल पल यह तस्वीर बदलने आए थे।
हुआ करते थे तैराक जिस सागर के।
आज उसका ही पानी डराने लगा है।
चूंटी चूंटी रेत झाड़ घर से फेंक आए।
मजबूर हुए आज रेत ढूंढने आए है।
कभी इतिहास बदलने का दम भरे।
गुमनामी के अंधेरो में खोते जा रहे।
मांझी चल रहा तूफानों से बेखबर।
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