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माँ से सीखा था पहला सबक, डर बाबा पुलिस का।
तब नही थी कोई खबर, जीवन में डर होता है क्या।
अब तो बन गया ये डर, एक अंग इस जीवन का।
कभी जाना पहचाना सा, है डर कभी अनजाना सा।
डर कहाँ कब कैसे नही, डर तो हमारी रग रग में बसा।
डर जीवन की पहचान है, डर ही मौत का है आवाहन।
बसता ये जो दिल दिमाग मे, फैला है जैसे शमशान में।
आसपास के वातावरण में है,और फैला सब समाज मे।
डर कभी दौलत खोने का,कभी शोहरत खो जाने का।
दुख के पा जाने का तो, कभी सुख के चले जाने का।
झूठ को छुपाने का तो, फिर झूठ के खुल जाने का।
धङकन बढ जाने या फिर धड़कन के रुक जाने का।
डर दुश्मन से, दोस्त से और अपने ही रिश्तेदार से।
माँ बाप से, बीबी बच्चो से,भाई बहन और प्यार से।
डर का ना होना भी,जीवन में डर ही लेकर आता है।
मुश्किल तब भी हो जाती,जब डर खत्म हो जाता है।
जीवन में मानो जब मृत्यु,यश अपयश,लाभ हानि
है अगर सब विधि हाथ, तो फिर डर बचेगा कहाँ।
संतोषी मन में नही रहे, जब खुशी पाने की और।
ना रहे गम खोने का तो,फिर कहो डर रहेगा कहाँ।
शास्त्र ही सिखाते है डर से,आजाद हो जाने का।
सत्य की राह चलने का भय से मुक्ति पाने का।
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