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ईद या दूज ढूंढे चांद आस्था मानकर
समझ नही पाए पूर्णिमा की रात को
बांटता रहा है वो चांदनी इस धरा पर
बरसाता अमृत आस्था के शिखर पर
देखते थे घट में टूटन आयी है किधर
पानी रिसता कहाँ से उन्हें नही खबर
टूटते संबंध संभाले आए महफ़िल में
पुछ रहे थे बताओ जरा टूट है किधर
शातिराना अंदाज़ था नादानी कहते
चेहरा देख सबको मूरख समझ बैठे
मासूमियत से कहे नफरत है किधर
शब्दों के चयन में ही नफ़रत झलके
छलक रहा दर्द उनके हर लफ्ज में
लग रहा था घाव लगे हुए हो गहरे
लंबी खामोशी के बाद शब्द टूटे से
अरसे बाद जैसे कोई बूत बोल उठे
मासूम आक्रोश दर्द का पता दे बैठा
हर कोई इस टूट का दर्द जान गया
आते रहना कभी रूबरू होते रहना
कहना सुनना राह आसान कर देना
साथ नज़र आये डगर आसान होगी
कुछ कर न सको तो भी शकुन देगी
आज भी दिए आस में टिमटिमा रहे
बचे दियो मे थोड़ा तो तेल भर देना
आप संदेश देते एकता बनी रह जाए
कौई पूछेगा उसमे विविधता है किधर
रूबरू होने आए मगर हुए इस तरह
टीवी स्क्रीन को कोई सवाल करे कैसे
मानवता शर्मसार थी छवि धुमिल हुई
उससे मगर आप बेखबर रह गए कैसे
तिलमिला उठे मोहब्बत की दुकान पर
नफरत के मंडी में नफरत न देख सके
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