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समक्ष प्रियतमा और बेपरवाह आवारगी
गले का हार नही प्रतिस्पर्धा का दौर था

जब हाथ बढ़ाया हाथ से फिसलती गयी 
हम इस मुगालते में रहते वह पिघल रही

मोहब्बत को अपना ही हक समझ बैठे
समय ने करवट बदल दी बेचैन होने लगे 

समय बदलता गया ठौर भी बदलते रहे
समीकरण बदली सोच नही बदल सके

वक्त हुआ ख्वाब राजनीति के छोड़ देते
गली मोहल्ले दिखने लगे थे बदले बदले

प्रेयसी उसकी हुई जहां जेब थी भरी हुई
राजनीति आवारगी नही पेशा होती गयी

आवारगी तब्दील कर बेठे तन्हाइयो में
दिल की आहे ग़ज़ल रुबाइयाँ होती गयी

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