
Share0 Bookmarks 0 Reads2 Likes
समक्ष प्रियतमा और बेपरवाह आवारगी
गले का हार नही प्रतिस्पर्धा का दौर था
जब हाथ बढ़ाया हाथ से फिसलती गयी
हम इस मुगालते में रहते वह पिघल रही
मोहब्बत को अपना ही हक समझ बैठे
समय ने करवट बदल दी बेचैन होने लगे
समय बदलता गया ठौर भी बदलते रहे
समीकरण बदली सोच नही बदल सके
वक्त हुआ ख्वाब राजनीति के छोड़ देते
गली मोहल्ले दिखने लगे थे बदले बदले
प्रेयसी उसकी हुई जहां जेब थी भरी हुई
राजनीति आवारगी नही पेशा होती गयी
आवारगी तब्दील कर बेठे तन्हाइयो में
दिल की आहे ग़ज़ल रुबाइयाँ होती गयी
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments