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काफी वक्त से करते आत्मतत्व तलाश
जनक धर्म सभाओ के कर रहे सवाल
दूरदूर से आते थे विद्वान प्रकांड पंडित
जबाब रहे नदारद पर सरल रहे सवाल
वेद धर्मशास्त्र पारंगत आये कई विद्वान
तरह तरह से बताते वे आत्मतत्व ज्ञान
दूर दूर से पहुंचते रहे ऋषि और विद्वान
अष्टावक्र पहुंचे थे ऋषि कहोड़ के साथ
तत्ववेता मिले जिसने किया तत्वदर्शन
न करा सका वो आत्मतत्व साक्षात्कार
आत्मतत्व द्रष्टा हो ऐसा विद्वान दुर्लभ
कुछ दिन देखते विद्वानो का शास्त्रार्थ
तब ऋषि अष्टावक्र रखे अपने विचार
इस सभा मे नही आत्मतत्व जानकार
ऋषि कहे शास्त्र न बता सकता सत्य
शास्त्र बयान करे नियम और सिद्धांत
जनक पूछे क्या ऋषि जाने आत्मतत्व
मंत्री बताते ऋषि को राजन के सवाल
ऋषि बोले किसे है आत्मतत्व दरकार
वह आगे आये राजन वही करे सवाल
आत्मतत्व पाता जब मन होता पवित्र
ज्ञान तो बसता है मानवमन के भीतर
जनक ले गुरुदीक्षा गुरु बने अष्टावक्र
अष्टावक्र राजा जनक को ले गए वन
गुरु आदेश से जब चढ़ने लगे थे अश्व
गुरु ने बीच रोक गुरुदक्षिणा ली मांग
गुरु बता रहे संसार में तेरा नही वजूद
हो जो तेरा गुरु दक्षिणा में वह दे दान
जब राजा जनक ने दिया मन का दान
मन जब रहा नही हुआ तत्व का ज्ञान
तीन दिन जनक को लगी रही समाधि
मिल गया राजन को जो था आत्मज्ञान
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