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सवाल सवाल ये सवालों का सिलसिला है
उत्तर ढंढते रहते बाबू उत्तर यहां नदारद है
घूमते जिन वादियो में बसंत की बहार थी
आहिस्ता ऋतू बदली पतझड़ की मार थी
सत्ता चारण रखती आज जनता चारण है
आज जो माहौल है जहां कसीदे जवाब है
ढूंढते सवालों को उनकी लंबी फेहरिस्त है
पुलवामा की दास्तान या देवेंद्र की चाल है
तेरह के घोटालों का सच उजागर न हुआ
स्विस बैंक का फंड सुरसा सा बढ़ता गया
एक मोड़ आया सफर में डगर बदल गयी
सब कसीदे पढते अब घोटाला कब हुआ
करते सवाल कहते सवालों पे मिट्टी डालो
इकॉनमी का सरगना देश से भी बड़ा हुआ
करोड़ो घरो के चुल्हो की आंच बुझ गयी
कुछ घरों के फानूस कैसे रोशन होते गए
फ्यूज बल्ब लगाने का सिलसिला हुआ
सफाई होती नए फ्यूज बल्ब लगाते गए
आज खड़े तेबीस में हर सवाल बेमानी है
यहां न कोई परीक्षा है न ही परीक्षार्थी है
है तो बस एक मंदिर और एक आरती है
जनता के हजूम में सेवक नही आराध्य है
जनता के हाथ मे आरती का थाल सजा
और देवता के हाथो हर गले का नाप है
कहते है जमाने मे भय बिन प्रीत न होई
लबो से सवाल का चोला उतार फेंकना
हंसकर करो या डरकर चारण रहो सदा
अब मंदिर में आरती की बारी तुम्हारी है
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