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तिमिर तिरोहित हो भोर अरुणिमा लायी
उदित हो आफताब पथ प्रशस्त कर रहा
क्षितिज पर रवि स्वर्णिम रश्मि बिखेरता
भास्कर से नवयुग उद्गम का उद्घोष रहा
विस्मृति के अंधेरो में स्वप्न विलीन हो रहे
स्वप्नबोध तिमिर संग विगलित होता गया
स्मृतिपटल पर नव स्मृति जाल बुन रही
प्रसार युग का प्रारंभ नूतन स्मृति बुनता
विकास से ज्यादा विकास का शोर बढा
नाकामियां प्रसार की आड़ में छुप गयी
कौन किससे पूछे कारवां कैसे लुट गया
जहां पीडित ही लुटेरों के साथ खडा था
प्राकृतिक आपदाएं दस्तक देकर लौटी
मानवता ने प्राणाहुति देकर विदा किया
जिम्मेवार था वह दूर से देखता रह गया
बदलता नजरिया सर्वत्र दृष्टिगत हो रहा
कैसे कोई क्रूरता का आयाम बखानता
कोई और होता लाशों का अंबार रहता
जिसने अपना खोया अपनो को खोया
वह कैसे कहता अपह्रास कम ही हुआ
महंगाई आंतक सूरसा सा फैलता गया
मगर चेहरों पर शिकन नजर नही आई
महंगाई विकास पथ की राही बन गयी
पीड़ित महंगाई को विकास बताता रहा
गलत बयानी और अवांछित कृत्य हुए
पीड़ित मगर उनके पक्ष में खड़े हो गए
सुखद अहसास था दुख का सबब नही
यथार्थविद भीड़ का हश्र देखता गया
जहाँ निद्रा में खलल का सबब नही था
मादक द्रव्य की मात्रा कुछ अधिक रही
करता रहा इंतज़ार बेसूधि टूट जाने का
चिरनिद्रा में संचार की आस छोड गया
जान तो जहान नव स्वप्न का संचार था
सोच की इन्तहा के बाद युगोदय हुआ
स्वर्णिम अमृतकाल में कालिमा किधर
बीज विनाश नवपल्लव का सबब रहा
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