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कितनी भोली
होती है यादें
पता नही कब कैसे
उठ जाती है धीरे से
मन के किसी एक कोने से
और
फिर पसरने लगती है
जैसे पसरता है
नीर सागर का
गौते लगाता है मन
उस गहरे सागर में
जिसमें समाहित है
अ
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