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जिसे मैं सोचता जाऊं सिरे से
उसे अब भी मेरी पहचान है क्या 
मेरी इक आह भी जिसको रुलाती थी कभी
वो मेरे जख्मों से अब अनजान हैं क्या 
माना ये ज़ख्म पुराने हैं, अरसों से हैं ये भरे हुए
लेकिन इन खोए जख्मों के भरते कभी निशान हैं क्या 
वो‌ कहते हैं, बुलाया ही नहीं मैंने मुकम्मल
मैं पूछता हूं, वो इस दिल के मेहमान हैं क्या
ये दिल उनका ही था, जब चाहते चले आते 
खुद अपने घर को आने में कोई नुक़सान है क्या ।।

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