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नदी, तुमने क्यूं नहीं छोड़ा ये रास्ता
पहाड़ों के बगल में भी जगह थी
कितना वक्त खोया है तुमने इस जिरह में
समंदर से भी तुम तब मिल न पाई
क्या तुम्हारे जिद की ये कीमत सही थी ?
शायद, तुम्हारा रास्ता ही सही था
अगर तुम उस समय जो बदल जाती
तुम्हारी इतनी बड़ी हस्ती न होती
इक पत्थर भी तुमको रोक देता
तुम्हारे पास फिर बस्ती न होती
तुम भी किसी तालाब सी रहती सिमटकर
तुम भी किसी चट्टान से रहती लिपटकर
शायद तुम्हें ये हस्र अब मंजूर न था
शायद तुम्हें अपने वजूद की कीमत पता थी
तुम इसलिए ही अब तक मुसलसल चल रही हो
तुम इसलिए ही अब तक मुसलसल बह रही हो।।
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