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कुछ स्वाभिमान की सलाखों की
कुछ हया आंखों की
बात है मर्यादा और संस्कारो की
निभाके मोहब्बत बन तो जाती हीर
फिर मां बाप का कर्ज क्या रहा..!
गर हमने भी खो दिया जमीर
कर के चार दिन का टाइमपास
फिर हवाला घरवालों का देती
आदत लगा के अपनी बीच रास्ते छोड़ देती
तो जमाने से अलग फर्क क्या रहा..!
किसी बात का मलाल और शिकवा नहीं
मिली नहीं आसमां से तो जमीं बेवफा नहीं
गर्दन सीधी होनी जरूरी है
झुका के जीया नहीं जा सकता
मंजूर है के ना मिले अमृत
जहर भी ये पिया नहीं जा सकता
खो जाऊं मैं भी दिवानगी में
फिर बेटी होने का फर्ज क्या रहा..!!
कुछ हया आंखों की
बात है मर्यादा और संस्कारो की
निभाके मोहब्बत बन तो जाती हीर
फिर मां बाप का कर्ज क्या रहा..!
गर हमने भी खो दिया जमीर
कर के चार दिन का टाइमपास
फिर हवाला घरवालों का देती
आदत लगा के अपनी बीच रास्ते छोड़ देती
तो जमाने से अलग फर्क क्या रहा..!
किसी बात का मलाल और शिकवा नहीं
मिली नहीं आसमां से तो जमीं बेवफा नहीं
गर्दन सीधी होनी जरूरी है
झुका के जीया नहीं जा सकता
मंजूर है के ना मिले अमृत
जहर भी ये पिया नहीं जा सकता
खो जाऊं मैं भी दिवानगी में
फिर बेटी होने का फर्ज क्या रहा..!!
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