
जब सुबह उठकर ठंडी हवा को खिड़की से आते देखती हूँ,
तो
सोचती हूँ क्यूँ ना एक लम्हा फुर्सत का चुरा लूँ..
उस
हवा को एक दुपट्टे की तरह ओढ़ कर मैं भी जरा सा जी लूँ, जरा सा मुस्कुरा लूँ,...
क्यूँ
ना मैं एक ताजगी भरा लम्हा फुर्सत का चुरा लूँ…
जब
सुनती हूँ कोयल को गाते, उस घने पेड़ पर सिर्फ अपनी आवाज से अपनी पहचान बनाते,
तो
सोचती हूँ मैं भी उसकी तरह जी भर के गुनगुना लूँ,
उसके
स्वर से स्वर मिला कर अपने अस्तित्व का अह्सास करा दूँ,
क्यूँ ना मै एक सुरीला लम्हा फुर्सत का चुरा लूँ….
जब देखती हूँ बच्चों को एक कुल्फी के लिए जिद करते,
रोते, बिलखते, हठ करते,
तो सोचती हूँ मैं भी उन बच्चों की तरह..ठान लूँ ,अपना हर एक कहा मनवा लूँ,
पुरानी सोच को बदल कर कुछ नया लेख लिखा दूँ,
क्यूँ ना मैं एक छोटा सा ही सही पर एक लम्हा फुर्सत का चुरा लूँ…
जब देखती हूँ बादल को आते जाते, बिन बात के गरजते और गड़गड़ाते, फिर अचानक से तेज पानी बरसातें..
तो सोचती हूँ मैं भी उस बादल की तरह दिल खोलकर हस लूँ, रो लूँ और उस मुस्कराहट को अपनी आँखों के पानी से छुपा लूँ,
एक नई रीत बना दूँ, एक नया गीत सुनाऊँ,
क्यूँ ना मैं एक इत्मीनान भरा , बिन बोझ का एक लम्हा फुर्सत का चुरा लूँ…..
-श्वेता
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