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नदी किनारे आकर बैठा
तो एहसास हुआ
कि तुम और यह नदी
बिल्कुल एक जैसी हो
शीतल, निर्मल
और गतिशील होते हुए भी
स्थिर
जिस तरह नदी
रेतीले क्षेत्रों,
दुर्गम पहाड़ियों से गुजरते हुए
कहीं तन्वंगी
और कहीं विस्तृत होकर
चलती रहती है
वैसे ही
विपदाओं में
स्वयं को परिस्थिति अनुसार
ढालकर
मेरे लिए
तुम
तथा तुम्हारी अविरल धारा में
प्रेम की नाव लिए
मैं
धारा के सापेक्ष
बहता जाता हूं
विश्वास की पतवार लिए
धीरे - धीरे
धीरे - धीरे।
- शिवम
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