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बिना हिन्दी के मैं हरगिज़ मुकम्मल हो नहीं सकती

इसी ने ही मिरी गज़लों की ज़ुल्मौं को संवारा है

सना बे साख़्ता कहती हूँ मैं सारे ज़माने से

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