
तेज दौड़ती दुनिया में बस चल रहा हूँ मैं
कोई विशेष, वजहें तो हैं नहीं ।।
हाँ, कुछ जिम्मेदारियाँ हैं, जो
मेरा आलिंगन प्रतिदिन करती हैं ।।
उनके स्पर्श में, है इतना सम्मोहन
इतना अपनापन, इतना समर्पण
कि, छोड़ कर उनको, दौड़ ही न सका ।।
शायद, बस यही एक कारण है , कि
रह गया मैं पीछे, अपनी जिम्मेदारियों के साथ
और निकल गई दुनिया, मुझसे बहुत आगे ।।
अब मैं तन्हा, तन्हाई में, देखता हूं
विकसित दुनिया की, उपलब्धियों को ।।
पर ये क्या, मुझे तो कोई खुशी,
कोई संतोष ही नहीं मिला ।।
भावुक मन बेचैन, जरा सा, व्याकुल हो गया है
पता नहीं, दुनिया बदली है, या मैं ही बदल गया हूँ ।।
जोर देते हैं रोज, कोशिश भी बहुत करते हैं
आज के, अतीत के, आधार को जरा सा परखते हैं ।।
पर कमबख्त, दिमाग फैसला ही नहीं कर पाता
हम विकसित हैं या वो विकसित थे ।।
जो चले गए सृजन का बीज सौंप कर हमें
इस यकीन के साथ, कि हम उत्तम हैं
श्रेष्ठ हैं, कुलीन हैं, बुद्धिमान प्राणी हैं ।।
जहां को, और खूबसूरत बनाएंगे
अपनी सभ्यता, संस्कृति और समरसता को
एक मुकम्मल आँगन दे जाएंगे ।।
पर अफसोस, हम धनवान, सुदृढ़, शिक्षित तो हुए
तनिक समझदार न हो पाए ।।
पुस्तकों के ज्ञान को, डिग्रियों में संजोए रखा
मगर उसका थोड़ा सा हिस्सा, हाँ बस थोड़ा सा
व्यवहार में न ला पाए ।।
सोचना आप भी जरा, या कह देना बीमार मैं हो गया हूँ
पता नहीं, दुनिया बदल रही है या मैं ही बदल गया हूँ ।।
कितना मन मोहक था, हमारा अतीत
उस समय की यादों से, आज भी है सबको प्रीत ।।
पर अब वो दिन कभी लौट कर नहीं आयेंगे
क्यूंकि ऐसा हुआ तो हम शिक्षित और निपुण लोग
असभ्य, जाहिल और गँवार कहलाएंगे ।।
माना उस समय किताबें ज्यादा नहीं थी
फिर भी उनका जीवन प्रफुल्लित था ।।
खाने को ब-मुश्किल ही मिलता था
मगर उनका तन पूर्ण विकसित था ।।
प्रेम, भाई-चारे सौहार्द का प्रसार था
चतुर्दिक अपनेपन से मनोरम भू–आकाश था ।।
दूसरे के सुख में सुख, दूसरे के दुःख में दुःख
ये उस समय के जीवन का आधार था ।।
किन्तु अति महत्वाकांक्षा में सब बेजान हो गया है
पता नहीं दुनिया बदल रही है या मैं ही बदल गया हूँ ।।
अनपढ़ थी तब माताएँ, अक्षर का ज्ञान नहीं था
पर उनकी लोरियों में, प्रेम के अफसाने का सृजन था ।।
अनभिज्ञ था तब पिता, ग्रंथों के समुन्दर से
मगर उसकी हिदायतें में, ज्ञान गंगा का चमन था ।।
तर्क के लिए तब वकालत की डिग्री नहीं थी
और न न्याय के लिए न्यायालय ।।
फिर भी आज के न्याय के दलालों से
गाँव का वो पंच लाख गुना समझदार था ।।
उगता था हर उर में, इंसानियत का सूरज
जिसकी ज़द में, चमकती थी सदा
गुरुद्वारे की वाणी, मस्जिद की चादर
चर्च के ईशू और मंदिर की मूरत ।।
कितनी समानता थी, मन, वचन और कर्म में
जान जाए तो जाए, पर कभी भी
आँच नहीं आती थी राह-ए-धरम में ।।
मगर आज स्वार्थ में, शायद इंसान का
समूचा मन, वचन और कर्म बदल गया है
पता नहीं, दुनिया बदल रही है या मैं ही बदल गया हूँ ।।
दिलों की मोहब्बत पर, अब लिबाज है स्वार्थ का
हर दोस्त लिए बैठा है, खंजर विश्वासघात का ।।
पत्नियाँ हमेशा मर्यादा की ऐसी-तैसी करती हैं
रख यदा-कदा व्रत, सती होने का ठोंग करती हैं ।।
दोस्त-दोस्त मिलकर, आँख-मिचोली खेल रहे हैं
एक दूसरे की बहन को गर्लफ्रेन्ड बना
बदन से, बदन की गर्मी निचोड़ रहे हैं ।।
कभी जब गलती से भी, पड़ जाय पर पुरुष की नजर
तो औरत अपवित्र हो जाती थी ।।
वही आज, पर पुरुष के लाइक्स और कमेन्ट्स के लिए
अपने कपड़े निकाल रही है ।।
खुद को मर्द कहता है, मूँछों पर ताव देता है
पर इतना गिर चुका है आज इंसान
खुद ही, खुद की बहन-बेटी की आस्तीन
की माप लेता है ।।
मार कर आज, मानव, मानव को
लहू की नदी में तांडव कर रहा है
पता नहीं, दुनिया बदली है कि मैं ही बदल गया हूँ ।।
अब भी समय है,
दौलत की बर्बर हवस को छोड़ दो इंसानों ।।
मत तोड़ो सृष्टि के नियम को
इसकी गति, लय और विराम को पहचानो
निरीह प्राणियों और गरीब को बख्श दो
ऐ अमीरों, पूरी दुनिया पर राज करने की
अपनी विनाशकारी महत्वाकांक्षा को छोड़ दो ।।
बचा लो इस जहाँ को, अभी भी समय है
केवल ये चेतावनी है, अभी आयी नहीं प्रलय है ।।
खुद को बदल दो, नहीं, सृष्टि सब कुछ बदलने लगी है
पता नहीं, दुनिया बदल रही है या मैं ही बदल गया हूँ ।।
---विचार एवं शब्द-सृजन---
---By---
---Shashank मणि Yadava ‘सनम’---
---स्वलिखित एवं मौलिक रचना---
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