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कितनी किताबें पढ़ ली पर नीयत, ईमान नहीं बदला
आज भी लोगों का देखो लहजा, अंदाज नहीं बदला ।।
बंटवारे की खातिर अब भी भाई-भाई लड़ते हैं
अंत समय में अम्मा-बाबू खून के आँसू रोते हैं ।।
लोगों की नफरत का भी यारों अंजाम नहीं बदला
धर्माधों के लहजे का शातिर उन्माद नहीं बदला ।।
कभी द्रौपदी की रक्षा कर कृष्ण ने लाज बचाई थी
मर्यादा के बल पर सावित्री ने पति की जान छुड़ाई थी ।।
वहीं आज ‘दामिनी’ बेचारी का सौभाग्य नहीं बदला
पैसों के लोभी वकील का लहजा कभी नहीं बदला ।।
हिंसा, घृणा, फरेब के तरु का लहजा सुनो नहीं बदला
क्या होगा--? इस धरती का, कोई इंसान नहीं बदला ।।
---विचार एवं शब्द-सृजन---
---By---
---Shashank मणि Yadava ‘सनम’---
---स्वलिखित एवं मौलिक रचना---
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