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कोहरे घने हैं कासीर मगर रोशनी आरही है
खिल गई थी जो कली अब कुम्हला रही है
बिगड़ रहा है शहर की आवो हवा का असर
तुम्हारे ईमान से जिल्लत की बदबू आ रही है
कोई पहुंचा नहीं इस मकान तक अरसा हुआ
मेरी आवाज ही मुझको बहल
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