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कोहरे घने हैं कासीर मगर रोशनी आरही है
खिल गई थी जो कली अब कुम्हला रही है
बिगड़ रहा है शहर की आवो हवा का असर
तुम्हारे ईमान से जिल्लत की बदबू आ रही है
कोई पहुंचा नहीं इस मकान तक अरसा हुआ
मेरी आवाज ही मुझको बहला रही है
सांस लेते हैं मगरूरी में और जिंदा भी नहीं
सुरते हयात पर मुर्दों को हंसी आ रही है
लिखता हूं मैं इस कदर बे वास्ता होकर
कोई पूछे तो सही कौन सी बात मुझे खा रही है।
विकाश शर्मा
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