
मेरे घर(मायके) के अहाते में वैसे तो कई सारे पेड़ हैं अमरूद, अनार, पपीता और न जाने क्या-क्या। लेकिन जिस पेड़ से पापा का ख़ास लगाव है, वो है एक मालदह( लंगड़ा) आम का पेड़। जिसके की फल बेहद पुष्ट और स्वदिष्ट होते हैं। एक-एक फल क़रीब आधे किलो का होता है। फरवरी से लेकर जून-जुलाई तक, मतलब कह सकते हैं कि मंजर आने से लेकर फल टूटने तक पापा इतने व्यस्त रहते हैं, कि उतना व्यस्त तो मैंने पापा को अपने बैंक की नौकरी में कभी ऑडिट आने पर भी नहीं देखा।
जिम्मेदारी यहीं पर पूरी नहीं होती। आम टूटने के बाद उसे सहेजकर खुद से पैक करके उसे वहाँ(पटना) से दिल्ली, मेरे पास लाने के बाद ही जाकर इस आम्रोत्सव की पूर्णाहुति होती है। कितनी ही बार मना किया कि पापा आप आम के झमेले में ना पड़ें, आप खुद ही बस आऐं। लेकिन... बेकार। अब मैंने मना भी करना छोड़ दिया है।
वैसे तो पापा जब भी आते हैं न जाने कितनी सारी चीजें लाते हैं?कुछ ख़ुद ख़रीदकर, कुछ भैया-भाभी की दी हुई।लेकिन जो चमक अपने लाए हुए आमों को खोलकर,फैलाकर दिखाने में उनकी आंखों में मैं देखती हूँ, वो चमक अतुलनीय है। शायद पापा अपनी पूरी जागिर भी किसी को दें तो वो चमक न दिखे!
आज शाम क़रीब चार बजे पापा का फोन आया....आश्चर्य!!!!! पापा का फोन???
मेरे पापा कभी भी मुझे फोन नहीं करते। जब भी करती हूँ, मैं ही करती हूँ। मुझे पता है, अच्छी तरह। इसीलिए मैं कभी उम्मीद भी नहीं करती। मैं ही हर चार-पांच दिनों के अंतराल पर बात कर लिया करती हूँ।
जब भी बात करती हूँ, पापा कभी न तो मेरी खै़रीयत पूछते हैं और न ही अपनी बताते हैं। हाँ, मोहल्ले भर की ख़बर ज़रूर बतलाया करते हैं। वो तो मैं उनकी आवाज़ से समझ जाती हूँ कि कब कैसे हैं? उनकी आवाज़ फोन पर मेरे लिए उनकी नब्ज़ का काम करती है और मेरे कान स्टेथेस्कोप का....। मेरे स्टेथेस्कोपिय कान उनकी आवाज़ रूपी नब्ज़ को सुनकर अंदाज़ा लगा लेते हैं कि वो खुश-नाखुश हैं, स्वस्थ-अस्वस्थ हैं, तकलीफ में हैं, उनका कोई पौधा सूख गया है??वगैरह-वगैरह।
फिर जब कारण पता चल जाता है, तब उसका निराकरण कभी सलाह से, कभी तसल्ली से या कभी घंटों बात मात्र करके ही करने का प्रयास करती हूँ। और इसी तरह से न जाने कब और कैसे मैं उनकी मनोचिकित्सक भी बन गई हूँ शायद....। तभी तो कई बार भैया-भाभी का फोन आता है कि पापा को समझाओ ऐसे करें या फिर ऐसे ना करें। मुझे हंसी भी आती है और अच्छा भी लगता है। ऐसा लगता है कि जैसे मैं पापा बन गई हूँ और पापा मेरे आज्ञाकारी बच्चे।
हाँ, तो मैं कह रही थी कि पापा का फोन आया। अभी कल ही रात को क़रीब पौना घंटे बात हुई थी! पापा ने खुद फोन किया! यह मेरे लिए एक अद्भुत और अकल्पनीय था।मैंने घबराकर फोन उठाया।
मैं - पापा प्रणाम।
पापा( हांफते हुए) - हाँ, हाँ वो सब तो ठीक है। सुनो यहाँ आंधी आई थी।
मैं - अच्छा! सब ठीक तो है? आप हांफ रहे हैं?
पापा - हाँ, आगे तो सुनो। आम का पेड़ एक तरफ से टूट गया। उसमें बहुत सारे आम लगे थे। तीन झोला आम निकल आया है।
मैं (बीच में टोकते हुए) - कब आई थी आंधी?
पापा - अभी-अभी। बस अभी दस मिनट भी नहीं बीता। अभी तो आम तोड़ ही रहा था कि ध्यान आया तुमको बता दूं। वही काम रोककर आया हूँ, इसीलिए हांफ रहा हूँ। अच्छा फोन रखो, अभी और तोड़ना बाकी है। जा रहा हूँ।
बस इतना कहकर पापा ने फोन काट दिया। मैं मुस्कराने लगी अपने-आप में।
मैं ये सोचने में लग गई कि ये कौन सा मनोविज्ञान काम कर रहा था यहाँ? पापा का आम से लगाव.... पापा की मुझपर भावनात्मक निर्भरता.... या मुझसे बतलाकर अपनी आश्वस्तता ....या..कुछ और जो शब्दों में व्यक्त करने के परे है ?
ये क्या था जो कि आंधी से आई मुश्किल को बीच में छोड़ कर सिर्फ मुझे ख़बर देने आए थे पापा, ये जानते हुए कि मैं यहाँ हज़ार किलोमीटर दूर बैठकर क्या ही कर लूंगी ? और ना ही ये ऐसी ख़बर है कि जिसे सुनते ही मैं वहाँ के लिए रवाना हो जाऊंगी !
ये क्या था यह सोचने के लिए आप पर ही छोड़ती हूँ।
लेकिन, मेरा मानना है कि कुछ रिश्ते ऐसे ज़रूर हों जिनको की, हर छोटी-से-छोटी बातें भी तुरंत बिना किसी औपचारिकता को निभाए बेझिझक बतलाया जाए। यक़ीन मानिए ये छोटी बातें बहुत ही बड़े रूप से हल्की करतीं हैं इंसान को।
मेरी कलम से -
शान्ता
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