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यूं तो चांद खिड़कियों पे
रेंगता है रात भर
बादलों का हुस्न अब भी
घूमता है बन संवर
अब भी जिस्म चूमती है
बांवरी हवा परी
रोशनी में धुल रहे हैं
अब भी जुगनुओं के पर
कुहनियों की टेक पर,साथ रख के सर मगर
रात जो हुई गुज़र कि
.....उसकी बात और थी
:/शंकर
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